मृदा: भारतीय मृदा के प्रकार , उनकी विशेषताएं एवं भौगोलिक स्थिति ( soil of india geography )

भारत में विभिन्न प्रकार की मृदा पाई जाती है। यह अपने भौगोलिक स्थान, जलवायु, और समुदाय के आधार पर अलग-अलग विशेषताओं वाली होती है। मृदा की विशेषताएं उसके भौगोलिक स्थान, जलवायु, और समुदाय के आधार पर अलग-अलग होती हैं। भारत में कुछ मुख्य मृदा प्रकार निम्नलिखित हैं:

लाल मृदा ( red soil )

लाल मृदा भारत में पायी जाने वाली मृदा की एक प्रमुख प्रकार है। यह मृदा भारत के उत्तरी हिस्सों में पायी जाती है और इसमें अधिक मात्रा में लोहे की खनिज धातु होती हैं। इसलिए यह मृदा लाल रंग की होती है।

लाल मृदा का प्राकृतिक रंग भूरे रंग का होता है लेकिन इसमें धातुओं की मौजूदगी के कारण इसकी रंगत्व में बदलाव आते हैं। इस मृदा का उपयोग धातु खनिजों के उत्पादन के लिए किया जाता है। लाल मृदा में मांगनीज, कोबाल्ट, निकेल आदि खनिज धातु पाए जाते हैं। इसमें मिट्टी में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले तत्वों के साथ-साथ उपजाऊ तत्व भी पाए जाते हैं।

लाल मृदा उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण होती है, विशेष रूप से लोहे के उत्पादन के लिए। यह मृदा उत्तर भारत में खासतौर पर जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश में पायी जाती है।

काली मृदा ( black soil )

काली मृदा भारत में पायी जाने वाली एक और प्रमुख मृदा की श्रेणी है। इस मृदा की रंगत्व काली होती है। इस मृदा का प्राकृतिक रंग सियाह होता है। काली मृदा में कम प्रमुख खनिज धातु होते हैं, जिससे इसकी रंगत्व नहीं होती है।

काली मृदा में मिट्टी में मौजूद अन्य तत्वों की मात्रा भी कम होती है। यह मृदा जल संशोधन और रेतीली उपज के लिए अनुकूल नहीं होती है। काली मृदा की जलवायु शुष्क होती है और इसमें उत्तर भारत की तरह वर्षा कम होती है।

काली मृदा का उपयोग विभिन्न शेती उत्पादों के लिए किया जाता है। इस मृदा में मिलती निर्मितियों में नामी उत्पादों का उत्पादन करने के लिए भी काफी उपयोग किया जाता है।

काली मृदा भारत के कुछ राज्यों में पायी जाती है जैसे मध्य प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, केरल आदि। इन राज्यों में इस मृदा का उपयोग भूमि की उपजाऊता को बढ़ाने के लिए भी किया जाता है।

जलोढ़ मृदा ( alluvial soil )

जलोढ़ मृदा एक अन्य प्रकार की मृदा होती है जो पानी से भरी जगहों में पाई जाती है। इस मृदा का नाम इसलिए जलोढ़ मृदा है क्योंकि यह जल पृथ्वी से संपर्क करने के बाद अपने स्वभाव को बदल देती है और सूखे के समय मिट्टी जैसी हो जाती है। जलोढ़ मृदा में उच्च मात्रा में मिट्टी वाले तत्व होते हैं, जो इसे सूखने पर स्थिर और मजबूत बनाते हैं।

जलोढ़ मृदा का उपयोग कृषि, बागवानी, फलों और सब्जियों के उत्पादन के लिए किया जाता है। इस मृदा में उपजाऊ पौधों की विकास और उत्पादन में उन्नति होती है। इसके अलावा, जलोढ़ मृदा स्थलों के लिए भी उपयुक्त होती है जहां नदी, झील, तालाब या नाले के किनारे भूमि होती है।

जलोढ़ मृदा भारत के कुछ राज्यों में पाई जाती है, जैसे कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, गुजरात और मध्य प्रदेश। यहां के कृषि और बागवानी के उत्पादों के लिए यह बहुत उपजाऊ होती है।

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लैटेराइट मृदा (laterite soil )

लैटराइट मृदा एक प्रकार की उत्तल शैवालु मृदा होती है जो अन्य उत्तल शैवालु मृदाओं के तुलना में कम गुणवत्ता वाली होती है। इस मृदा का नाम उसकी रंग से लिया गया है, जो लाल होती है। लैटराइट मृदा की पारंपरिक उपयोगिता उसकी ऊर्जा की खपत से संबंधित होती है, जो इसके उपयोग से उत्पन्न होती है।

लैटराइट मृदा में धातु अधिक मात्रा में नहीं पाई जाती है इसलिए यह एक कम गुणवत्ता वाली मृदा होती है। इस मृदा में आमतौर पर मैगनीशियम, एल्यूमिनियम, इरोन और कार्बन होते हैं। लैटराइट मृदा का उपयोग अधिकतर ऊर्जा की खपत के लिए किया जाता है, जैसे कि विद्युत उत्पादन, घरेलू ऊर्जा, ताप, और उद्योगों में इस्तेमाल किया जाता है।

भारत में लैटराइट मृदा के संपदा संसाधन होते हैं और इसे उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल, राजस्थान, त्रिपुरा, मेघालय और जम्मू कश्मीर में पाया जाता है

पर्वतीय मृदा (hilly soil )

पर्वतीय मृदा, जो शैल-प्रदेशीय मृदा भी कहलाती है, हिमालय और अन्य पर्वत श्रृंखलाओं के तल पर पाया जाने वाला मृदा होता है। इस मृदा का निर्माण प्राकृतिक पत्थर, चट्टान, विभिन्न धातुओं और विभिन्न वायुमंडलीय प्रभावों से होता है। यह मृदा पर्वत श्रृंखलाओं पर उत्पादित होता है जो पूर्वी और पश्चिमी हिमालय के मध्य भागों में स्थित हैं।

पर्वतीय मृदा विभिन्न प्रकार की होती है जैसे कि बालुआ पत्थर मृदा, सिल्ट मृदा, लोमड़ी मृदा आदि। इन मृदाओं की गुणवत्ता और प्रकृति भिन्न होती है।

पर्वतीय मृदा का उपयोग भूमि के लिए मुख्य रूप से कृषि, वनों के विकास, पसुपालन, जल संरक्षण, भू-जल संरक्षण, जलवायु विज्ञान और पानी की संरचना और अभिलेख निर्माण जैसे क्षेत्रों में किया जाता है।

भारत में पर्वतीय मृदा का संपदा संसाधन पश्चिमी हिमालय क्षेत्र, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम आदि हैं।

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मरुस्थली मृदा ( deserty soil )

मरुस्थली मृदा वह मृदा होती है जो मृदा खंडों में पायी जाती है जहां अधिकतर वर्षा नहीं होती है और शुष्कता ज्यादा होती है। इस मृदा का निर्माण उष्णकटिबंधीय वनस्पतियों, पत्थर और वायुमंडलीय तत्वों के प्रभाव से होता है। मरुस्थली मृदा का रंग भूरा होता है और यह धूल, मृद या रेत की तरह बहुत हल्की होती है।

मरुस्थली मृदा की विशेषताएं हैं कि इसमें खनिज तत्वों की कमी होती है और इसमें पाए जाने वाले पोषक तत्व भी कम होते हैं। इसलिए, इस मृदा से विकासित कृषि विरोधी वनस्पतियों और जीव-जंतुओं को प्रभावित कर सकते हैं।

मरुस्थली मृदा जैसी कम उपजाऊ मृदाओं के कारण, इसे खेती के लिए अनुशंसित नहीं माना जाता है। हालांकि, इस मृदा से बायोगैस, ऊर्जा और खनिज तत्वों का उत्पादन किया जाता है। इसके अलावा, मरुस्थली मृदा को पानी संचयन और नियंत्रण के लिए भी उपयोग में लाया जाता है।

सबसे उपजाऊ मृदा कौन सी होती है

जलोढ़ मृदा

किस मृदा में जल धारण करने की क्षमता सर्वाधिक होती है।

काली मृदा

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