भारत का संवैधानिक विकास|1773 से 1947 ईस्वी तक | Constitution Development of India Hindi

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किसी भी देश के संविधान की रचना मात्र एक दिन की उपज नहीं होती है बल्कि संविधान एक सतत्‌ विकास का परिणाम होता है। भारतीय संविधान के ऐतिहासिक विकास का काल सन्‌ 1599 ई० से शुरू होता है तथा उसी समय ब्रिटेन में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना भी हुई थी।

महारानी एलिजाबेथ ने एक राजलेख द्वारा 15 वर्षों के लिए कपंनी को व्यापार का अधिकार दिया जिसे 1599 ई० का चार्टर कहा जाता है। इस राजलेख द्वारा कंपनी को समस्त पूर्वी देशों में व्यापार का एकमेव स्वामित्व सौंपा गया तथा कंपनी की समस्त शक्तियाँ 24 सदस्यीय परिषद में निहित थी। 1726 के चार्टर द्वारा ही भारत स्थित कपनी को नियम- उपनियम तथा अध्यादेश जारी करने, की शक्ति भी प्रदान की गई। अत: हम यह कह सकते हैं कि भारतीय संविधान के निर्माण की एक लंबी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है इसलिए इस संविधान को समझने के लिए उसकी पृष्ठभूमि तथा इतिहास को जानना आवश्यक है। भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित भारतीय संविधान से जुड़े हुए अनेक ऐसे अधिनियम एवं चार्टर हैं जिन्हें समय-समय पर संसद मे पारित किया गया जो हमारे संविधान की आधारशिला कहे जा सकते हैं।

1773 का रेग्यूलेटिंग

यह ऐक्ट भारत के संवैधानिक इतिहास में विशेष महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत में कंपनी के प्रशासन पर ब्रिटिश संसदीय नियंत्रण के प्रयासों की शुरूआत थी। कंपनी के शासनाधीन क्षेत्रों का प्रशासन अब कंपनी के व्यापारियों का निजी मामला नहीं रहा। इस एक्ट में भारत में कंपनी के शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया तथा कंपनी के राजनैतिक और प्रशासनिक उतरदायित्वों को स्वीकार किया गया। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं

  • ब्रिटिश सरकार ने कपनी में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं कुप्रशास को दूर करने के लिए 1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया।
  • इस एक्ट के तहत मद्रास एवं बम्बई प्रेसीडेन्सियों को कलकत्ता प्रेसीडेन्सी के अधिन कर दिया। जिसका प्रमुख एक गवर्नर जनरल होता था।
  • गवर्नर जनरल की परिषद में चार सदस्य थे। सम्पूर्ण कलकताप्रेसीडेन्सी का प्रशासन तथा सैनिक शक्ति इसी सरकार में निहित थी।
  • इसी एक्ट के द्वारा कलकता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना क्री गई जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अपर न्यायाधीश होते थे।
  • रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के द्वारा पहली बार ब्रिटिश मंडल को भारतीय मामलों में नियंत्रण का अधिकार दिया गया जो कि अपूर्ण था।
  • इसी ऐक्ट के तहत कलकता के गवर्नर को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार दिया गया।

1781 का एक्ट ऑफ सेटेलमेंट

1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी, जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालय और कंपनी के कर्मचारियों एवं गवर्नर-जनरल क्रे मध्य अधिकार क्षेत्र को लेकर व्यापक संघर्ष प्रारम्भ हो गया। ब्रिटिश सरकार ने इस संघर्ष को समाप्त करने के लिए 1781 में एक अधिनियम पारित किया जिसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय कम्पनी के कर्मचारियों के विरुद्ध उन कार्यों के लिए कार्यवाई नहीं कर सकता था, जो उन्होंने एक सरकारी कर्मचारी के रूप में किए हों। कंपनी के राजस्व अधिकारियों एवं कानूनी अधिकारियों को भी सरकारी अधिकारी के रूप में किए गए कार्यों के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से मुक्त कर दिया गया। गवर्नर-जनरल एवं उसकी परिषद के सदस्यों को भी यह उन्मुक्तता प्रदान की गई। इस अधिनियम के द्वारा स्थानीय परंपरागत विधियों को संरक्षण प्रदान बकिया गया। हिन्दुओं और मुसलमानों के संविदा और उत्तराधिकार के लिए उनकी स्थानीय परंपरागत विधियाँ ही प्रवर्तित की जा सकती थीं। जातीय नियमों के अनुसार किए जाने वाले कार्यों को अपराधों की श्रेणी से मुक्त कर दिया गया था। गवर्नर-जनरल एवं उसकी परिषद्‌ के सदस्यों को भी यह उन्मुक्तता प्रदान की गई। इस अधिनियम के द्वारा स्थानीय परंपरागत विधियों को संरक्षण प्रदान किया गया। हिन्दुओं और मुसलमानों के संविदा और उत्तराधिकार के लिए उनकी स्थानीय परंपरागत विधियाँ ही प्रवर्तित की जा सकती थी। जातीय नियमों के अनुसार किए जाने वाले कार्यों को अपराधों की श्रेणी से मुक्त कर दिया गया था

1784 का पिट्स इंडिया एक्ट

1781 के अधिनियम द्वारा न्यायिक व्यवस्था मैं किया गया सुधार पर्याप्त नहीं था, साथ ही 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट की कमियों को भी दूर करना था। ऐसी ही परिस्थिति में आंग्ल-मराठा युद्ध ने कंपनी की वित्तीय हालत खराब कर दी और ब्रिटिश सरकार से 10 लाख पौंड का ऋण माँगना पड़ा। 1784 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री पिट द यंगर ने कंपनी के राजनीतिक मामलों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए ‘पिट्स इडिया एक्ट’ पारित करवाया। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं

  • भारत में गवर्नर जनरल की परिषद्‌ की सदस्य संख्या 4 से घटाकर 3 कर दी गई तथा निर्णय अभी भी बहुमत द्वारा होना था। इस परिषद को युद्ध, संधि, राजस्व, सैन्य शक्ति, देशी रियासतों आदि अधीक्षण की शक्ति प्रदान की।
  • कंपनी के भारत अधिकृत प्रदेशों को पहली बार “ब्रिटिश अधिकृत प्रदेश” कहा गया।
  • गवर्नर जनरल को देशी राजाओं से युद्ध तथा संधि से पूर्व कम्पनी के संचालकों से स्वीकृति लेना आवश्यक कर दिया गया।
  • इंग्लैंड में आयुक्तों के एक “नियंत्रण बोर्ड’ कौ स्थापना की गई, जिसे भारत में ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्र पर पूरा अधिकार दिया गया। इसे ‘ बोर्ड ऑफ कन्‍ट्रोल ‘ के नाम से जाना गया। इसके सदस्यों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी।
  • सचिव तथा चार अन्य सम्राट द्वारा प्रिवी कोंसिल के सदस्यों से चुने जाते थे।“बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल’ को कम्पनी के भारत सरकार के नाम आदेशों एवं निर्देशों को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने का अधिकार प्रदान किया गया।
  • प्रांतीय परिषद्‌ के सदस्यों की संख्या भी 4 से घटाकर 3 कर दी गई। बम्बई तथा मद्रास के गवर्नर पूर्णरूपेण बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिए गए।
  • कंपनी के कर्मचारियों को उपहार लेने पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया गया।
  • भारत में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों के मामलों में सुनवायी के लिए इंग्लैंड में एक कोर्ट की स्थापना की गई।

1786 का अधिनियम

पिट्स का इडिया एक्ट भी पूर्णतः दोषमुक्त नहीं था। गृह सरकार के क्षेत्र में दोहरी व्यवस्था (नियंत्रक मंडल तथा निदेशक मंडल) के दोष, उत्तरदायित्व का अभाव तथा दो संस्थाओं के मध्य टकराव की समस्या सामने आई। भारत में गवर्नर जनरल की स्थिति पहले से बेहतर तो हुई, किंतु अब भी भारत की केन्द्रीय सरकार का सर्वोच्च अधिकारी नहीं था। इस कमी को दूर करने के लिए 1786 का एक्ट पारित किया गया। इस एक्ट ने गवर्नर जनरल को सवोच्च सेनापति के अधिकार प्रदान कर दिए तथा यह अधिकार भी दिया कि वह परिषद्‌ के निर्णय को रद्द करके स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकता है।

1793 का चार्टर एक्ट

पिट्स का इडिया एक्ट भी पूर्णतः दोषमुक्त नहीं था। गृह सरकार के क्षेत्र में दोहरी व्यवस्था (नियंत्रक मंडल तथा निदेशक मंडल) के दोष, उत्तरदायित्व का अभाव तथा दो संस्थाओं के मध्य टकराव की समस्या सामने आई। भारत में गवर्नर जनरल की स्थिति पहले से बेहतर तो हुई, किंतु अब भी भारत की केन्द्रीय सरकार का सर्वोच्च अधिकारी नहीं था। इस कमी को दूर करने के लिए 1786 का एक्ट पारित किया गया। इस एक्ट ने गवर्नर जनरल को सवोच्च सेनापति के अधिकार प्रदान कर दिए तथा यह अधिकार भी दिया कि वह परिषद्‌ के निर्णय को रद्द करके स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकता है।

इसके मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे

  • 1786 के अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल को मिले अधिकार को सामान्य व्यवस्था में बदल दिया गया अर्थात्‌ यह भविष्य में बनने वाले सभी गवर्नर जनरलों के लिए स्थाई कर दिया गया।
  • नियंत्रक बोर्ड के सदस्यों एवं कर्मचारियों के वेतन तथा भारत में कार्यरत्‌ ब्रिटिश सेना के व्यय का भुगतान भारतीय राजस्व से किया जाने लगा।
  • गवर्नरों को भी अपनी परिषद के निर्णयों को रद्द करने का अधिकार मिल गया।
  • भारत में कंपनी को अगले 20 वर्षों के लिए व्यापारिक एकाधिकार प्रदान किया गया।

1813 का चार्टर एक्ट

कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त करने, ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत में धर्म प्रचार की सुविधाओं की मांग, लॉर्ड वेलेजली की भारत में आक्रामक नीति तथा कम्पनी की बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा 1813 का चार्टर एक्ट पारित किया गयों;, जिसके मुख्य प्रावधान निम्न थें।

  • भारतीय व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया।
  • चीन के साथ व्यापार तथा चाय के व्यापार का एकाधिकार बना रहा।
  • भारत में शिक्षा व साहित्य के प्रोत्साहन के लिए 1 लाख रूपये वार्षिक व्यय का प्रावधान किया गया।
  • ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की. अनुमति दी गई।
  • कम्पनी को अगले 20 वर्षों के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया गया।
  • नियंत्रक मंडल को कपनी के कर्मचारियों को नागरिक व सैनिक सेवाओं के लिए प्रशिक्षण प्रदान करने का अधिकार दिया गया।

1833 का अधिनियम

भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान संविधान निर्माण की हल्की सी झलक हमें 1833 के चार्टर अधिनियम में मिलते हैं। इस अधिनियम द्वारा भारत के प्रशासन का केन्द्रीयकरण कर दिया गया।बंगाल का गवर्नर अब भारत का गवर्नर दिया गया और सपरिषद गवर्नर जनरल को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक कार्य का नियंत्रण निरीक्षण तथा निदेशन सौंप दिया गया। इस अधिनियम द्वारा निम्नलिखित प्रावधान किए गए।

  • इस एक्ट ने कंपनी को अगले 20 वर्षों के लिए नया जीवन दिया तथा उसे एक ट्स्टी के रूप में प्रतिष्ठित किया।
  • कंपनी के वाणिज्यिक अधिकार समाप्त कर दिए गए तथा उसे भविष्य के केवल राजनेतिक कार्य ही करने थे।
  • सभी कर सपरिषद गवर्नर जनरल की आज्ञा से ही लगाए जाते थे। इस प्रकार प्रशासन तथा vitt की सारी शक्ति गवर्नर जनरल और उसकी परिषद में केन्द्रित हो गई
  • इस अधिनियम के द्वारा कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की परिषद में एक कानूनी सदस्य चोथे सदस्य के रूप में सम्मिलित किया गया।
  • भारतीय कानूनों को संचित लिपिबद्ध तथा सुधारने के उद्देश्य से एक विधि आयोग का गठन किया गया।
  • इस अधिनियम के द्वारा कंपनी के चीन से व्यापार तथा चाय सम्बन्धी व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया। गवर्नर ज़नरल को ही विधि आयोग नियुक्त करने का अधिकार प्रदान किया गया।
  • इस अधिनियम के द्वारा नियुक्तियों के लिए योग्यता सम्बन्धी . मापदंड को अपनाकर, भेदभाव समाप्त कर दिया गया।
  • इस अधिनियम के द्वारा नियुक्तियों के लिए योग्यता सम्बन्धी मापदंड को अपनाकर, भेदभाव समाप्त कर दिया गया।

1853 का चार्टर अधिनियम

इस अधिनियम के अन्तर्गतकंपनी को भारतीय प्रदेशों को ”महामहिम साम्राज्ञी तथा उसके उत्तराधिकारियों की ओर से प्रन्यास के रूप में किसी निश्चित समय के लिए नहीं अपितु जब तक संसद न चाहे उस समय तक के लिए अपने अधीन रखने की अनुमति दे दी गई। नियुक्तियों के मामले में डायरेक्टरों का संरक्षण समाप्त हो गयाक्योंकि नियुक्तियाँ अब एक प्रतियोगी परीक्षा द्वारा की जाने लगी

मुख्य प्रावधान-

  • इस चार्टर ने कार्यपालिका से विधायी शक्तियों को पृथक करने का एक निश्चित कदम उठाया। भारतवर्ष के लिए एक पृथक विधान परिषद की स्थापना की गई
  • विधान परिषद में 12 सदस्य होते थे। कमांडर-इन-चीफ, गवर्नर जनरल के चार सदस्य और 6 सभासद विधान परिषद के सदस्य होते थे।
  • अन्य 6 सदस्यों में बंगाल के मुख्य न्यायाधीश, कलकता सुप्रीम कोर्ट का एक न्यायाधीश और बंगाल मद्रास, बंबई और आगरा चार प्रान्तों के प्रतिनिधि शामिल थे
  • इस प्रकार भारतीय विधान परिषद में सर्वप्रथम क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त पारित किया गया।
  • विधान परिषद द्वारा पारित विधेयक को गवर्नर जनरल वीटो कर सकता था।
  • 1853 के अधिनियम ने ही संपूर्ण भारत के लिए एक विधान मंडल की स्थापना की।

1858 का अधिनियम

इस adhiniayam के अनुसार भारत का शासन साम्रज्ञी की ओर से एक मुख्य राज्य सचिव जिसे अब भारत राज्य सचिव की संज्ञा दी गई को चलाना था और उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों वाली एक परिषद बनाई गई। इस प्रकार 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट के द्वारा लागू दोहरी शासन व्यवस्था समाप्त कर दी गई। राज्य सचिव की परिषद के 15 सदस्यों में से 8 की नियुक्ति क्राउन को करनी थी और 7 की डायरेक्टर्स के बोर्ड ने। अधिनियम ने यह भी व्यवस्था की कि इन सदस्यों ‘ में से कम से कम आधे ऐसे लोग हों जो भारत में दस वर्ष तक सेवा कर चुके हों और उन्हें भारत से आए अधिक से अधिक 10 वर्ष हुए हो। क्राउन द्वारा मनोनीत रिक्त स्थानों की पूर्ति क्राउन करेगा तथा ‘डायरेक्टरों द्वारा मनोनीत व्यक्तियों के रिक्त स्थानों की परिषद, निर्वाचन द्वारा करेगी। गवर्नर जनरल को वायसराय की उपाधि दी गई। यह क्राउन का सीधा प्रतिनिधि बन गया। संभावित जनपद सेवा मे नियुक्तियाँ खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगी। जिसके लिए राज्य सचिव ने जनपद सेवा आयुक्‍तों की सहायता से नियम बनाए।

1861 का भारतीय परिषद्‌ अधिनियम

1861 का भारतीय परिषद अधिनियम भारत के संवैधानिक इतिहास में महत्वपूर्ण और युगांतकारी घटना है।

मुख्य प्रावधान-

  • इसने वाइसराय की कार्यकारी परिषद में एक पाँचवां सदस्य सम्मिलित कर दिया जो कि विधि वृत्ति का व्यक्ति था।
  • दूसरे वाइसराय की परिषद में अधिक सुविधा से कार्य करने के लिए नियम बनाने की अनुमति दे दी गई। इस नियम द्वारा कैनिंग ने विभागीय प्रणाली आरंभ की।
  • कानून बनाने के लिए वाइसराय की कार्यकारी परिषद में . न्यूनतम 6 और अधिकतम 12 अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति से उसका विस्तार किया गया। इन्हें वाइसराय मनोनीत करेगा ओर वे दो वर्ष तक अपने पद पर बने रहेंगे। इनमें से आधे और सरकारी सदस्य होंगे। यद्यपि भारतीयों के लिए कोई वैधानिक प्रावधान नहीं था।
  • इस अधिनियम के अनुसार बंबई तथा मद्रास प्रांतों को अपने लिए कानून बनाने तथा इनमें संशोधन करने का अधिकार पून: दे दिया गया।
  • गवर्नर जनरल को संकटकालीन अवस्था में विधान परिषद की अनुमति के बिना ही अध्यादेश जारी करने की अनुमति दे दी। ये अध्यादेश अधिकाधिक 6 मास तक लागू रह सकते  थे।
  • इस अधिनियम के द्वारा वाइसराय को नये प्रांतों की स्थापना तथा उनकी सीमाओं में परिवर्तन का अधिकार भी प्राप्त होगा।

1892 का भारतीय परिषद अधिनियम

मुख्य प्रावधान-

  • 1857 की राज्य क्रांति के फलस्वरूप भारतीयों में पनपी राष्ट्रीयवा, 1885 में कांग्रेस की स्थापना तथा इलबर्ट बिल विवाद आदि घटनाओं ने 1892 के भारत परिषद्‌ अधिनियम पारित करने के लिए अंग्रेजों को बाध्य किया।
  • इस अधिनियम द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई।
  • परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा सरकार से प्रश्न पुछने का अधिकार भी दिया गया। इस अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान चुनाव पद्धति की शुरूआत करनी थी।
  • इस अधिनियम में चुनाव प्रणाली को तो स्वीकार किया गया लेकिन स्पष्ट रूप से नहीं। विधानमंडल की शक्तियाँ बहुत सीमित थी, सदस्यों को अनुपूरक प्रश्न पुछने का अधिकार नहीं था।
  • चुनाव की विधियों संतोषजनक नहीं थी। सिद्धान्त रूप में हम केवल यही कह सकते हैं कि यह अधिनियम अखिल भारतीय कांग्रेस की माँगों से काफी कम था फिर भी एक साकारात्मक प्रयास था।

1909 का भारतीय परिषद अधिनियम

मुख्य प्रावधान:

1909 के अधिनियम द्वारा भारतीयों को विधि निर्माण तथा प्रशासन दोनों में प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया।

केन्द्रीय विधानसभा में सदस्यों की संख्या 60 कर दी गई। अब विधानमंडल में 69 सदस्य थे जिनमें से 37 शासकीय सदस्य तथा 32 गैर शासकीय वर्ग के थे।

इस अधिनियम ने केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधायनी शक्ति को बढ़ा दिया। परिषद के सदस्यों को बजट की विवेचना करने तथा उस पर प्रश्न करने का अधिकार दिया गया।

परिषद के सदस्यों को विदेशी सम्बन्धों तथा देशी राजाओं से सम्बन्धों कानून के सामने निर्णय के लिए आय प्रश्नों को उठाने की अनुमति नहीं थी।

इस अधिनियम के द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक मताधिकार तथा पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की स्थापना की गई।

इस अधिनियम के द्वारा स्थापित चुनाव प्रणाली बहुत ही अस्पष्ट तथा जनप्रतिनिधित्व के विरुद्ध थी।

1919 का भारत सरकार अधिनियम

मुख्य प्रायधान-

  • 1919 के अधिनियम का तात्कालिक कारण 1916 का होमरूल आंदोलन तथा मोटेग्यू-चेम्सफोर्ड कमीशन की रिपोर्ट थी। जिसमें भारतीय सरकार की अकु॒शलता का स्पष्ट आरोप है।
  • इस अधिनियम का यह भरसक प्रयत्न था कि किस प्रकार भारत के एक प्रभावशाली वर्ग को कम से कम 10 वर्ष के लिए ब्रिटिश राज्य का समर्थक बना लिया जाए।
  • इस अधिनियम में पहली बार “’उत्तरदायी शासन ” शब्दों का स्पष्ट प्रयोग किया गया था। जिसने भारत में तनावपूर्ण वातावरण को कुछ समय के लिए शान्‍त बना दिया।
  • प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी शासन तथा द्वैध शासन की स्थापना की गई।
  • इस नये अधिनियम के अनुसार सभी विषयों को केन्द्र तथा प्रान्तों में बांट दिया गया था।
  • केन्द्रीय सूची के विषय पर सपरिषद गवर्नर जनरल का अधिकार था।
  • इस अधिनियम के तहत केन्द्र में द्विसदनीय व्यवस्था स्थापित की गई। एक सदन राज्य परिषद तो दुसरे को केन्द्रीय विधान सभा कहा गया।
  • द्विसदनीय केन्द्रीय विधानमंडल को पर्याप्त शक्तियाँ दी गई थ्री यह समस्त भारत के लिए कानून बना सकती थी। गवर्नर  जनरल क्राउन की अनुमति से कोई भी बिल पारित कर सकता था वह अध्यादेश जारी कर सकता था जिसकी बैधता 6 माह की होती थी।
  • इस विधेयक के तहत प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली लागू की गई। प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बांटा गया था आरक्षित तथा हस्तांतरित विषय।
  • अरक्षित विषयों पर प्रशासन गवर्नर अपने उन पार्षदों की सहायता से करता था जिन्हें वह मनोनीत करता था तथा हस्तांतरित विषयों का प्रशासन निर्वाचित सदस्यों के द्वारा करता था।
  • इस अधिनियम द्वारा पंजाब में सिक्‍खों को कुछ प्रांतों में यूरोपियनों, एंग्लो इंडियनों को तथा भारतीय इसाईयों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया।
  • इस अधिनियम द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गई।

भारत शासन अधिनियम 1935

मुख्य प्रावधान

  • इस अधिनियम के द्वारा सर्वप्रथम भारत में संघात्मक प्रकार की स्थापना की गई।
  • इस संघ को ब्रिटिश भारतीय प्रांत, कुछ भारतीय रियासतें जो संघ में शामिल होना चाहती थीं, मिलाकर बनाया गया था। इस अधिनियम के द्वारा प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त करके केन्द्र में द्वैध शासन लागू किया गया।

संघ में प्रशासन के विषय दो भागों में विभक्‍त थे।

1 हस्तांतरित

2 रक्षित

रक्षित विषय में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, धार्मिक विषय तथा जनजातिय क्षेत्र सम्मिलित थे।

इसके अलावा अन्य हस्तांतरित ग्रुप में आते थे।

  • इसी अधिनियम के द्वारा प्रांतों को स्वायतता प्रदान की गई। केन्द्रीय विधानमंडल में दो सदन थेविधानसभा तथा राज्य परिषद्‌
  • 1935 के अधिनियम द्वारा बर्मा को ब्रिटिश भारत से अलग कर दिया गया। दो नये प्रांत सिंध और उड़ीसा का निर्माण हुआ।
  • केन्द्रीय विधानमंडल की शक्तियाँ अत्यंत सीमित थी। गवर्नर जनरल अपने विवेकानुसार एक साथ दोनों सदनों को आहूत कर सकता था, उसका विघटन भी कर सकता था।
  • इस अधिनियम द्वारा कुछ प्रांतों में द्विसदनात्मक व्यवस्था की गई थी।
  • उच्च सदन विधान परिषद, निम्न सदन विधानसभा कहलाता था।
  • प्रांतों की कार्यपालिका का गठन गवर्नर तथा मंत्रीपरिषद के द्वारा होता था।

गवर्नर को तीन प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त थीं।

  • विवेकीय शक्तियाँ
  • विशिष्ट उत्तरदायित्व की शक्तियाँ
  • मंत्रिमंडल की सलाह से प्रयुक्त शक्तियाँ।
  • 1935 के अधिनियम में विषयों को तीन श्रेणि में बांटा गया था संघ सूची, प्रांतीय सूची तथा समवर्ती सूची।
  • संघ सूची में 59 विषय थे। अखिल भारतीय हित के चिषय इसी में आते थे।
  • प्रान्तीय सूची में 57 विषय थे। इसमें स्थानीय महत्व के मुद्दे शामिल हैं।
  • समवर्ती सूची में 36 विषय थे जिनमें मुख्यतः: प्रान्तीय हित के विषय थे।
  • अवशिष्ट शक्तियों पर अंतिम निर्णय का अधिकार गवर्नर जनरल को था।
  • इस अधिनियम के द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की भी व्यवस्था थी।
  • उपर्युक्त व्यवस्था के अलावा इस अधिनियम में भारत परिषद का विघटन करने, संघीय रेलवे प्राधिकरण की व्यवस्था करने तथा महाधिवक्‍ता एवं वित्तीय परामर्शदाता की नियुक्ति की भी व्यवस्था थी।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947

ब्रिटिश सरकार ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार एक कानून बनाया। 4 जुलाई 1947 को संसद में विधेयक रखा गया और 18 जुलाई तक यह पारित हो गया। इस अधिनियम में कोई नया संविधान नहीं बनाया गया। इसमें केवल भारतीय और पाकिस्तानी प्रतिनिधियों को अपना संविधान बनाने की अनुमति दी गई थी अर्थात इस अधिनियम द्वारा ३ जुन की माउन्टबैटन प्रतिज्ञा की पूर्ति की गई थी।

मुख्य प्रावधान-

  • इसमें दो अधिराज्यों की स्थापना 15 अगस्त 1947 को होगी और ब्रिटिश सरकार सत्ता सौंप देगी। साथ ही साथ इसमें पंजाब और बंगाल के विभाजन की भी व्यवस्था की गई थी।
  • पाकिस्तान को मिलने वाले क्षेत्रों को छोड़कर ब्रिटिश भारत में सम्मिलित सभी प्रांत भारत में सम्मिलित माने गए। प्रत्येक अधिराज्य के लिए एक अलग गवर्नर जनरल होगा जो महामहिम द्वारा नियुक्त होगा जो अधिराज्य की सरकार के प्रयोजनों के लिए महामहिम का प्रतिनिधित्व करेगा। प्रत्येक अधिराज्य के लिए पृथक विधानमंडल होगा जिसे विधि बनाने का पूरा अधिकार होगा तथा उसमें ब्रिटिश सरकार का किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होगा।
  • नये संविधान बनने और लागू होने तक यही संविधान संभाएँ ही विधान सभाओं के रूप में कार्य करेंगी 1935 के ऐक्ट के अनुसार कार्य चलेगा।
  • प्रत्येक प्रदेश को 31 मार्च 1948 तक गवर्नर जनरल द्वारा पारित ऐक्ट से इस अधिनियम को परिवर्तन करने का अधिकार दिया गया और उसके उपरांत वहाँ की संविधान सभा को यह अधिकार प्राप्त होगा।
  • इस अधिनियम के अनुसार ब्रिटिश क्राउन का भारतीय रियासतों पर से प्रभुत्व भी समाप्त हो गया और 15 अगस्त 1947 को सभी संधियाँ और समझौते समाप्त माने जाएंगे, परंतु जब तक कि इन नये प्रदेशों और रियासतों के बीच नये समझोते नहीं होंगे उस समय तक तत्कालीन समझोते चलते रहेंगे।

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