भारत की मिट्टियाँ|bharat ki mittiyan

0
19

भारत में पाई जाने वाली चट्टानों की संरचना एवं भारत की जलवायु में पर्याप्त विविधता पाई जाती है, जिससे विभिन्‍न भौगोलिक क्षेत्रों में विभिन्‍न प्रकार की मिट्टियों का विकास हुआ। मानव जीवन में मृदा का महत्व बहुत अधिक है, विशेषकर किसानों के लिए। समस्त मानव जीवन मिट्टी पर निर्भर करता है। समस्त प्राणियों का भोजन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिट्टी से प्राप्त होता है। हमारे वस्त्रों के निर्माण में प्रयुक्त कपास रेशम, जूट व ऊन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिट्टी से ही मिलते हैं। जैसे भेड़ मिट्टी पर उगी घास खाती है और हमें ऊन देती है। रेशम के कीड़े वनस्पति पर जीते हैं ओर वनस्पति मिट्टी पर उगती हे। भारत में लाखों घर मिट्टी के बने हुए हैं। हमारा पशुपालन उद्योग, कृषि और वनोद्योग मिट्टी पर आधारित हैं। इस प्रकार मिट्टी हमारे जीवन का प्रमुख आधार है। विलकॉक्स के अनुसार , मानव-सभ्यता का इतिहास मिट्टी का इतिहास है और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा मिट्टी से ही प्रारम्भ होती हे।

मृदा से तात्पर्य “उस प्राकृतिक पिण्ड से है जो विच्छेदित एवं अपक्षयित खनिजों एवं कार्बनिक पदार्थों के विगलन से निर्मित पदार्थों के परिवर्तनशील मिश्रण से परिच्छेदिका के रूप में संश्लेषित होता है।

मिट्टी

यह एक जटिल तथा निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है। पैतृक शैलें, जलवायु, वनस्पति, भूमिगत जल एवं सूक्ष्म जीव सहित अनेक कारक मृदा की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। स्थानीय उच्चावच तथा जलीय दशाएँ, मिट्टी के गठन, 7/1 मान आदि विशेषताओं को निर्धारित करती है। जलवायु ही मृदाजनन के विभिन्‍न प्रक्रमों जैसे – लेटरीकरण , पॉडजोलीकरण ,कैल्सीकरण , लवणीकरण, एवं क्षारीायकरण आदि को सक्रिय बनाने में सबसे महत्वपूर्ण कारक है।

भारत की मिटिट॒यों का वर्गीकरण

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने सन्‌ 1986 में देश में 8 प्रमुख तथा 27 गौण प्रकार की मिट्टियों की पहचान की है। प्रमुख आठ मिट्टी अधोलिखित है

भारतीय मृदा प्रकार के प्रमुख प्रकार

1. जलोढ़ मिट्टी

जलोढ़ मिटिटयाँ विशाल मैदानों, नर्मदा, चंबल तापी, महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी की घाटियों एवं केरल के तटवर्ती भागों में लगभग 15 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र (देश के 43.4% भू-क्षेत्र) पर विस्तृत हैं। ये मिट्टियाँ मुख्यत: हिमालय से नदियों द्वारा अपरदित पदार्थों से निर्मित हैं। ये हल्की भूरे से राख जैसे भूरे रंग की हैं तथा गठन में रेतीली से दोमट प्रकार की हैं। बाढ़ के मैदान की नवीन काँप को स्थानीय रूप से “खादर’ कहा जाता है तथा पुरानी काँप, “बाँगर’ कहलाती है। बाँगर भूमि में कंकड तथा अशुद्ध कैल्शियम कार्बोनेट की ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं जिन्हें “कंकड़’ कहते हैं। शुष्क क्षेत्रों में इन मिट्टियों में लवणों तथा क्षारों के निक्षेप भी मिलते हैं जिन्हें ‘रेह’ कहा जाता है। बाँगर के निर्माण में चीका का प्रमुख योग रहता है, कहीं-कहीं दोमट या रेतीली दोमट भी मिलती है। बाँगर मिट्टियों की उर्वरता बनाये रखने के लिये भारी मात्रा में उर्वरकों की आवश्यकता होती है। काँपीय मिट्रियाँ, पोटाश, फास्फोरिक अम्ल, चूना तथा जैविक पदार्थों में समृद्ध होती है, किन्तु इनमें नाइट्रोजन तथा हझ्यूमस तत्वों की बहुत कमी होती है ये मिट्टियाँ सिंचाई तथा चावल,जूट, गन्ना, गेहूँ, कपास, मक्का, तिलहन, फल तथा सब्जियों के लिये उपयुक्त हैं।

2. लाल मिट्टी

लाल मिट्टी का विस्तार प्रायद्वीप पर लगभग 6.1 लाख वर्ग किमी. (देश के 18.6% भूक्षेत्र) पर है। इस प्रकार ये मिट्टियाँ देश का द्वितीय विशालतम वर्ग हैं। ये तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आन्भ्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा तथा झारखण्ड में व्यापक क्षेत्रों में तथा पश्चिम बंगाल, दक्षिणी बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में पायी जाती है। इनका लाल रंग लोहे के आक्साइड की उपस्थिति के कारण है। इनका गठन वालू से चीका तक, प्रधानतः दोमट प्रंकार का है। इन शैलों में सामान्यतः चूना, मैग्नीशियम, फॉस्फेट, नाइट्रोजन, पोटाश तथा ह्यूमस की कमी रहती है। ये अत्यधिक निक्षालित मिट्टियाँ हैं। उच्च भूमियों में इनकी परत महीन होती है तथा ये बजरी युक्त, बलुई, पथरीली एवं छिद्रयुक्त होती है। अतएव ये बाजरे जेसी खाद्यान्न फसलों के लिये उपयुक्त होती है। किन्तु निम्न भूमियों तथा घाटियों में ये समृद्ध , गहरी, उर्वर, गहरे रंग की होती हैं तथा कपास, गेहूँ, दालों, तम्बाक्‌, ज्वार, अलसी, मोटे अनाजों, आलू तथा फलों की खेती के लिये उपयुक्त होती है।

3. काली मिट्टी

काली मिट्टियों को स्थानीय रूप से ‘रेगुर’ या काली कपास की मिट्टी तथा अन्तर्राष्ट्रीय रूप से ‘ऊष्ण कटिबन्धीय चरनोजम” कहा जाता है। इन मिट्टियों का विस्तार लगभग 5 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र (देश के 15.2% भू-क्षेत्र) पर है। इनका विकास महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु प्रदेश में लावा के अपक्षय से हुआ। इन मिट्टियों का रंग गहरे काले रंग से हल्के काले तथा चेस्टनट तक है। इनकी संरचना सामान्यतः चीका मय, डली युक्त तथा कभी-कभी भंगुर होती है। ये मिट्टियाँ सामान्यतः लौहे, चूने, कैल्शियम, पोटाश, एल्युमीनियम तथा मैग्नीशियम काबोंनेट से समृद्ध होती हें, किन्तु इनमें नाइट्रोजज, फास्फोरस तथा जैविक पदार्थों की कमी होती है। चूँकि इनमें देर तक नमी धारण करने की क्षमता होती है, अत: ये भीगने पर कठोर हो जाती है तथा सूखने एवं हल चलाने पर इनमें गहरी दरारें उत्पन्न हो जाती हैं। इनमें उर्वरता अधिक होती है, अतएव ये जड़दार फसलों, जैसे-कपास, तूर, खट्टे फलों, तम्बाकू, गन्ना, ज्वार, मोटे अनाजों, अलसी, अरण्डी, सफोला आदि की खेती के लिये उपयुक्त रहती है।

4. लैटेराइट मिट्टी

लैटेराइट मिट्टियाँ लगभग 1.26 लाख वर्ग किमी. भू-क्षेत्र पर विस्तृत हैं। ये मिट्टियाँ सह्याद्रि, पूर्वी घाट, राजमहल पहाड़ियों, सतपुडा, विन्ध्य, असम तथा मेघालय की पहाडियों के शिखरों में मिलती हैं। ये घाटियों में भी पायी जाती हैं। भीगने पर ये कोमल तथा सूखने पर कठोर हो जाती हैं। ये ऊष्णकटिबन्ध की प्रारूपिक मिटिटियाँ हैं, जहाँ मौसमी वर्षा होती है। क्रम से भीगने तथा सूखने पर इनका सिलिकामय पदार्थ निक्षालित हो जाता है। इनका लाल रंग लौह के आक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है। ये मिट्टियाँ सामान्यतः लौह तथा एल्युमीनियम से समृद्ध होती हैं, किन्तु इनमें नाइट्रोजन, पोटाश, पोटेशियम, चूना तथा जैविक पदार्थ की कमी होती है। ये प्रायः अनुर्वर मिट्टियाँ हैं किन्तु उर्बरकों के प्रयोग से इनमें चावल, रागी, गन्ना, काजू आदि विविध प्रकार की फसलें उगायी जाती हैं। यह चावल, कपास, गेहूँ, दाल, सिनकोना, चाय, कहवा के लिए उपयोगी है।

5. पर्वतीय मिट्टी

पर्वतीय मिट्टियाँ हिमालय के ढालों पर घाटियों में 2100 – 3000 मीटर की ऊँचाई पर मिलती हैं। इनकी गहराई कम होती है तथा ये सामान्यतः अपरिपक् होती है। ये गठन में गादयुक्त रंग में गहरी कत्थई तथा प्रतिक्रिया में हल्के से मध्यम अम्लीय होती है। ये मिटिट॒याँ वृक्षदार फसलों तथा आलू की खेती के लिये उपयोगी होती हैं।

6. मरूस्थली मिट्टी

मरूस्थली मिट्टियों का विस्तार राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, हरियाणा, तथा दक्षिणी पंजाब के लगभग 1 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र पर है। ये मिट्टियाँ बलुई से बजरीयुक्त होती है जिनमें जैविक पदार्थ तथा नाइट्रोजज की कमी एवं कैल्शियम कार्बोनेट की भिन्‍न मात्रा पायी जाती है। इनमें घुलनशील लवणों का उच्च प्रतिशत मिलता है, किन्तु नमी की मात्रा कम होती है। ये मिट्टियाँ सिंचाई की सहायता से खाद्यान्नों तथा कपास की खेती के लिए उपयुक्त होती हैं। अन्यत्र इनमें केवल मिलेट, ज्वार, बाजरा तथा मोटे अनाज ही उगाये जाते हैं।

7. वन्य मिट्टियाँ

ये मिट्टियाँ हिमालय के शंकुधारी बन क्षेत्र में 3000-3100 मीटर तक ऊँचाई पर मिलती हैं, जहाँ भूमि पत्तियों आदि से ढंकी रहती हैं। इन मिट्टियों का रंग प्रायः गहरा होता है। इनमें जीवांश की प्रचुरता होती है, किन्तु पोटाश, फास्फोरस तथा चूने की कमी होती है। ये मिट्टियाँ सह्याद्रि , पूर्वी घाट तथा उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में भी मिलतो हैं, ये बगानी फसलों तथा फलोधद्यानों के लिये आदर्श होती हैं।

A लवणयुक्त एवं क्षारीय मिट्टियाँ

ये मिट्टियाँ पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र के शुष्क भागों में लगभग 68,000 वर्ग किमी. क्षेत्र पर जिस्तृत हैं, केशिका क्रिया से धरातल पर लबणों की परत अन जाती है, जिसके फलस्वरूप इस प्रकार की मिट्टी का निर्माण होता है। ऐसी मिट्टियाँ पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के नहर सिंचित तथा उच्च जल स्तर खाले क्षेत्रों में उत्पन्न हो गयी हैं। ये अनुर्वर मिट्टियाँ ‘रेह’ ‘कल्लर’, ‘राथड्‌’, ‘ थूर’, ‘चोपन’ आदि अनेक स्थानीय नामों से पुकारी जाती हैं। इन मिट्टियों का पुनरूद्धार उचित अपवाह, चूना या जिप्सम के प्रयोग बरसीम, चावल, गन्‍ना आदि लवण-प्रतिरोधी फसलें उगाकर किया जाता है। इन मिट्टियों में चावल, गेहूँ, कपास, गन्ना, तम्बाकू आदि उगाये जाते हैं।

B .पीट एवं दलदली मिटिट्॒याँ

पीट मिट्टियाँ वर्षा ऋतु में जलमग्न होने वाले क्षेत्रों में पायी जाती हैं। ये मिट्टियाँ काली, भारी एवं अत्यधिक अम्लीय होती हैं तथा धान की खेती के लिये उपयुक्त होती हैं। ये मिट्टियाँ अत्यधिक लवणीय तथा जैविक पदार्थों से समृद्ध होती हैं, किन्तु इनमें पोटाश तथा फॉस्फेट की कमी होती है। ये मिट्टियाँ केरल में मिलती हैं।दलदली मिट्टियाँ जल लग्नता तथा मिट्टी की अवातनिक दशाओं, लोहे की उपस्थिति एवं विभिन्‍न मात्रा में जैविक पदार्थों का प्रतिफल है। ये उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तर मध्य बिहार के तटवर्ती क्षेत्रों उत्तराचल के अल्मोड़ा जिले में पायी जाती हैं।

C . तराई की मिट्टियाँ

तराई की मिट्टियाँ ये मिट्टियाँ एक संकरी पेटी में पश्चिमी हिमालय के पाद प्रदेश में मिलती हैं। इनका निर्माण शिवालिक पहाड़ियों से पदार्थ के निक्षेपण से हुआ है यह मिट्टियां उर्वर है। तथा इनमें सघन वनों का निर्माण होता है

Important questions

भारत में कितने प्रकार के मिट्टी मृदा पाई जाती है?

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने सन्‌ 1986 में देश में 8 प्रमुख तथा 27 गौण प्रकार की मिट्टियों की पहचान की है। प्रमुख आठ मिट्टी अधोलिखित है

भारत के विभिन्न भागों में पाई जाने वाली मिट्टी के रंग भिन्न होने के पिछे का कारण

यह एक जटिल तथा निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है। पैतृक शैलें, जलवायु, वनस्पति, भूमिगत जल एवं सूक्ष्म जीव सहित अनेक कारक मृदा की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। स्थानीय उच्चावच तथा जलीय दशाएँ, मिट्टी के गठन, 7/1 मान आदि विशेषताओं को निर्धारित करती है। जलवायु ही मृदाजनन के विभिन्‍न प्रक्रमों जैसे – लेटरीकरण , पॉडजोलीकरण ,कैल्सीकरण , लवणीकरण, एवं क्षारीायकरण आदि को सक्रिय बनाने में सबसे महत्वपूर्ण कारक है।

भारत में वन और पर्वतीय मिट्टी

ये मिट्टियाँ हिमालय के शंकुधारी बन क्षेत्र में 3000-3100 मीटर तक ऊँचाई पर मिलती हैं, जहाँ भूमि पत्तियों आदि से ढंकी रहती हैं। इन मिट्टियों का रंग प्रायः गहरा होता है। इनमें जीवांश की प्रचुरता होती है, किन्तु पोटाश, फास्फोरस तथा चूने की कमी होती है। ये मिट्टियाँ सह्याद्रि , पूर्वी घाट तथा उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में भी मिलतो हैं, ये बगानी फसलों तथा फलोधद्यानों के लिये आदर्श होती हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here