भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन pdf download- आधुनिक भारत का इतिहास

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भारत में यूरोपीय कम्पनियों के आगमन भारत में आने के आधार पर सबसे पहले भारत में पुर्तगीज आये। इसके बाद डच , अंग्रेज , डेनिश और फ़्रांसिसी आये इन यूरोपीय कंपिनयों में यद्यपि अंग्रेज डच के बाद आये। परन्तु उनकी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना डच ईस्ट इंडिया कम्पनी से पहले हो चुकी थी इस आधार पर इन कम्पनियों की स्थापना और आने का क्रम अलग-अलग जो निम्न प्रकार है

भारत में यूरोपीय कम्पनियों के आने का क्रम

पुर्तगाली ➡️ डच ➡️ अंग्रेज ➡️ डेनिश ➡️ फ्रांसीसी

यूरोपीय कम्पनियों के स्थापना का क्रम

पुर्तगाली ➡️ अंग्रेज ➡️ डच ➡️ डेनिश ➡️ फ्रांसीसी

भारत में पुर्तगाली

यूरोपवासियों में सर्वप्रथम पुर्तगीज भारत आए। उत्तमाशा अन्तरीप का चक्कर कटते हुए अब्दुल मनीद नामक गुजराती पथ-प्रदर्शक की सहायता से 17 मई, 1498 ई० को कालीकट के प्रसिद्ध बन्दरगाह पर “कप्पकडाबू” नामक स्थान पर वास्कोडिगामा अपना बेडा उतारा। कालीकट में बसे हुए अरब व्यापारियों ने उसके प्रति वैमनस्थ का रवैया अपनाया किन्तु कालीकट के हिन्दू राजा ने, जिसको पैतृक उपाधि ‘जमोरिन” थी, उसका हार्दिक स्वागत किया और उसे मसाले एवं जड़ी-बूटियां इत्यादि ले जाने की आज्ञा प्रदान की। वास्कोडिगामा को इस माल से यात्रा व्यय निकालने के बाद भी 60 गुना लाभ प्राप्त हुआ। इस तरह पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन कुछ समय के लिए समस्त यूरोपीय व्यापार का केन्द्र बन गई और पुर्तगाली शासक ‘मनुअल प्रथम द्वारा “वाणिज्य के प्रधान” की उपाधि धारण की गई।

1500 ई० मे पेट्रो अल्वरेज केब्रल’ के नेतृत्व में द्वितीय पुर्तगाली अभियान कालीकट पहुँचा । इसने कालीकट बन्दरगाह में एक अरबी जहाज, पकड़कर जमोरिन को उपहारस्वरूप भेंट किया ।

1502 ई० में वास्कोडिगामा पुनः भारत आया। 1503 ई० में पुर्तगालियों ने कोचीन में पहली फैक्ट्री बनाई। 1505 ई० में उन्होंने कन्नूर में दूसरी फैक्ट्री बनाई | उसी वर्ष 1505 ई० में ‘फ्रांसस्को डी. अल्मोड़ा को प्रथम पुर्तगाली बायसराय बनाकर भारत भेजा गया।

पुर्तगालीयों के यूरोप एवं भारत के बीच एक सीधा समुद्री मार्ग खोजने के पीछे आर्थिक और धार्मिक कारण सक्रिय थे। आर्थिक कारणों में अरबों एवं अपने यूरोपीय प्रतिस्पर्धियों यानी वेनिस एवं जेनेवा के व्यापारियों को समृद्ध पूर्वी व्यापार से निकाल बाहर करना ओर धार्मिक कारणों में अफ्रीका एवं एशिया को जनता को ईसाई बनाकर तुर्कों एवं अरबों की बढ़ती हुई शक्ति को संतुलित करना था।

फ्रांसिस्को डी अल्मीडा (1505-09 ई०)

अल्मीडा को भारत का प्रथम पुर्तगाली गवर्नर बनाया गया। उसे सरकार की ओर से निर्देश था। कि वह भारत में ऐसे पुर्तगाली दुर्ग बनाए जिसका लक्ष्य सुरक्षा न होकर, हिन्द महासागर के व्यापार पर पुर्तगाली नियंत्रण स्थापित करना हो। इस प्रकार अल्मीडा का मूल उद्देश्य शान्तिपूर्वक व्यापार करना था। उसकी यह नीति” ब्लू वाटर पॉलिस” ( blue water policy) “शान्त जल की नीति” कहलाई।

अल्मीडा का 1508 ई० में संयुक्त मुस्लिम नोसैनिक बेड़े (गुजरात + मिस्र + तुर्की) से चौल के समीप युद्ध हुआ, जिसमें यह पराजित हुआ और इसका पुत्र मारा गया। लेकिन अपनी वापसी के पूर्व 1509 ई० में इसने संयुक्त मुस्लिम नोसेनिक बेड़े को पराजित किया |

इस विजय से एशिया में ईसाई जगत की नोसेनिक श्रेष्ठता स्थापित हुई ओर 16वीं शताब्दी में हिन्द महासागर पुर्तगाली सागर के रूप में परिवर्तित हो गया।

अलफांसो डी अलबकर्क (1509-15 ई०)

अल्मीडा के बाद अलबुकर्क गर्वनर बना। इसे भारत में पुर्तगीज शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने कोचीन को अपना मुख्यालय बनाया। 1510 ई० में अलबुकर्क ने बीजापुर के सुल्तान से गोआ जीत लिया। गोआ की विजय ने टक्षिण-पश्विम समुद्र तट पर पुर्तगाली प्रभुत्व की मुहर लगा दी। इसके साथ ही भारत में क्षेत्रीय पुर्तगाली राज्य की स्थापना हुई। अलबुकर्क ने 1515 ई० में दक्षिण एशिया की महत्वपूर्ण मण्डी पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। फारस की खाड़ी मुख पर स्थित हरमुज पर उसका अधिकार 1515 ई० में हो गया।

ये तीनों सामरिक अत्यन्त महत्वपूर्ण थे, किन्तु बार-बार प्रयास करने पर भी पुर्तगाली अदन पर अधिकार नहीं कर सके, जो लाल सागर क्रे व्यापार पर नियंत्रण को कुंजी थी।

अलबुकर्क भारत में स्थायी पुर्तगीज आबादी बसाना चाहता था। इसलिए उसने स्वदेश वासियों का भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। अल्बूकर्क ने अपने क्षेत्र में सती प्रथा बन्द कर दी, किन्तु हसकौ नीति में एक बहुत बुरी बात यह थी कि वह मुसलमानों को बहुत तंग करता था। जो भी हो उसने बफादारी के साथ पुर्तगीजों की सेवा को । 1515 ई० में उसकी मृत्यु हुई। उस समय पुर्तगीज भारत की सबसे सबल जल शक्ति बन चुके थे तथा पश्चिमी समुद्र तट पर उनकी तूती बोलने लगी थी।

नीनो डी कुन्हा (1529 -38 )

अल्बुकर्क के बाद यह प्रमुख पुर्तगाली गवर्नर था। इसने 1530 ईस्वी में सरकारी कार्यालय कोचीन से गोवा स्थान्तरित कर दिया। इस प्रकार गोआ भारत में पुर्तगाली राज्य की औपचारिक राजधानी बन गया। कुंआ मद्रास के निकट सैन्थोम और बंगाल में हुगली में पुर्तगाली बस्तियों को स्थापित करके भारत के पूर्वी समुद्र तट की ओर भी पुर्तगालीयों का विस्तार किया उसने 1534 में बेसिन पर और 1535 ईस्वी में दीव पर अधिकार कर लिया। इसका गुजरात के शासक बहादुरशाह से बेसिन के बिषय में समझौता हो गया। इस झगड़े में बहादुरशाह समुद्र में गिरकर मर गया।

पुर्तगालियों ने धीरे धीरे समुद्र के समीप कुछ महत्वपूर्ण बस्तियां बसाई। 1559 में दमन पर भी अधिकार कर लिया। उनकी बस्तियों में दीव , दमन , साष्टी ,बसई , चौल , बम्बई ,सान्थोमि और हुगली शामिल थे। सीलोन के अधिकांश भाग उनके हांतो से निकल गए।

अंग्रेज भी डचो से पीछे नहीं रहे 1611 ईस्वी में सूरत के निकट स्वावलली के समुद्र तट पर अंग्रेंजो ने पुर्तगालियों पर महत्वपूर्ण विजय की प्राप्त की। 1628 ईस्वी में फ़ारसी सेना की सहायता से अंग्रेजो ने हरमुज पर कब्ज़ा कर लिया जो फारस की खाड़ी पर स्थित पुर्तगालियों की मुख्य चौकी थी। मुग़ल सम्राट शाहजहाँ के शासनकाल में कासिम खा ने 1632 ईस्वी में हुगली पर कब्ज़ा कर लिया तथा मराठों ने 1739 ईस्वी में साष्टी और बसई पर अधिकार जमा लिया। केवल गोवा , दमन और दीव 1961 तक पुर्तगालियों के अधिकार में रहे

पुर्तगाली नियंत्रण की विधि एवं प्रक्रिया

1571 ई० में पुर्तगाली एशियाई साम्राज्य का तीन स्वतंत्र कमानों में विभाजित किया गया। अफ्रीकी समुद्र तट पर पुर्तगाली बस्तियों पर नियंत्रण के लिए मोजाम्बिक के गवर्नर की नियुक्ति की गई। भारतीय ओर फारस की खाड़ी के प्रदेशों को गोआ के गवर्नर के अधीन रखा गया तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए मलक्का के गवर्नर की नियुक्ति की गई। पुर्तगालियों ने यूरोप को होने वाले निर्यात-व्यापार को नियंत्रित करने के साथ-साथ मालाबार तट पर एक बन्दरगाह से दूसरे बन्दरगाह तक होने वाले व्यापार ओर भारतीय बन्दरगाहों से फ़ारस खाड़ी एवं मलक्का तक होने वाले विदेशी व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया

पुर्तगाली सामुद्रिक साम्राज्य को एस्तादो द इंडिया नाम दिया गया। उन्होंने हिन्द महासागर में होने वाले व्यापार को नियंत्रित करने और उस पर कर लगाने का प्रयास किया।

व्यापार पर गहरा प्रभाव डाला। उनका मुख्य साधन था कार्टज या परमिट जिसके पोछे आमेंडा का बल होता था। पुर्तगाली अपने आप को “सागर के स्वामी” कहते थे और कार्टज-आमेंडा व्यवस्था को उचित ठहराते थे। कोई भी भारतीय या अरबी जहाज पुर्तगाली अधिकारियों से कार्टज (परमिट) लिए बिना अरब सागर में नहीं जा सकता था। कार्टज के लिए शुल्क देना पड़ता था। एशिया के शासक इस व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए बाध्य थे क्‍योंकि पुर्तगालियों की नो-सेना अत्यन्त शक्तिशाली थी। भारतीय एवं अरबी जहाजों को काली मिर्च एवं गोला-बारूद ले जाने की अनुमति नहीं थी। पुर्तगालियों ने अपने आपको यह अधिकार भी दे रखा था कि वे निषिद्ध व्यापार में लगे होने के सन्देह पर जहाजों का तलाशी ले सकते थे। पुर्तगालियों को व्यापार नियंत्रण का एक अन्य उपाय भी करना पड़ा, वह था- काफिला व्यवस्था। इसमें स्थानीय व्यापारियों के जहाजों का एक काफिला होता था, जिसकी रक्षा के लिए पुर्तगाली बेड़ा साथ-साथ चलता था। इसके दो कार्य थे प्रथम इन जहाजों की समुद्री डाकुओं से रक्षा करना एवं द्वितीय यह निश्चित करना कि इनमें से कोई जहाज पुर्तगाली व्यवस्था के बाहर जाकर व्यापार न करें। मुगल बादशाह तक सूरत से मोरवा जाने वाले अपने जहाजों के लिए परमिट प्राप्त करते थे। मुगल सम्राट अकबर ने पुर्तगालियों से प्रतिवर्ष एक निःशुल्क कार्टज प्राप्त करके एक प्रकार से उनका नियंत्रण स्वीकार कर लिया। पुर्तगालियों का हिन्द महासागर पर 1595 ई० तक एकाधिकार बना रहा।

पुर्तगाली प्रभुत्त का पतन

पुर्तगालियों के पतन के अनेक कारण थे। प्रथमतः  उनकी धार्मिक असहिष्णुता से भारतीय शक्तियाँ बिगड़ गईं और इनकी शत्रुता पर विजय प्राप्त करना पुर्तगीजों के बूते के बाहर की बात थी। दूसरे, उनका चुपके-चुपके व्यापार करना अन्त में उनके लिए घातक हो गया। तीसरे ब्राजील का पता लग जाने पर पुर्तगाल की उपनिवेश सम्बन्धी क्रियाशीलता पश्चिम की ओर उन्मुख हो गई। अन्ततः एवं सर्वप्रमुख कारण उनके पीछे आने वाली दूसरी यूरोपीय कम्पनियों से उनकी प्रतिद्वंद्विता हुई जिसमें वे पिछड़ गए

पुर्तगाली आधिपत्य का परिणाम

हिन्द महासागर में पुर्तगाली नियंत्रण के कतिपय महत्वपूर्ण धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिणाम हुए। पुर्तगालियों ने भारत में अपने आधिपत्य की स्थापना के साथ ही धर्म परिवर्तन बढ़ावा दिया। 1540 ईस्वी मे गोवा के सभी मन्दिर नष्ट कर दिए गए। बाद में 1573 ई० मे बार्डे 1584-87 ई० में सालसेट  में भी यही हुआ। 1560 ई० में गोआ में ईसाई धर्म न्यायालय की स्थापना की गईं ताकि किसी भी प्रकार के धर्मद्रोह को दण्डित किया जा सके। 1542 ईस्वी में गवर्नर मार्टिन डियूजा के साथ प्रसिद्ध ज्यूस संत जेवियर भारत आया। मुगल शासक अकबर दरबार में तीन जसुइट मिशन आए। जेसुइटों को भ्रम हो गया था कि अकबर मसीही मत स्वीकार करना चाहता है।

पुर्तगीजों को भारत का जापान के साथ व्यापार प्रारंभ करने का श्रेय भी दिया जाता है। वहाँ से तांबा और चांदी प्राप्त होती थी। पुर्तगीज मध्य अमेरिका से तम्बाकू ,आलू और मक्का भारत लाये उन्होंने ही भारत में प्रिंटिंग प्रेस ( छपाई ) की शुरुआत की। अनन्नास पपीता , बादाम ,काजू , मूंगफली ,सकरकंद , काली मिर्च , लीची और संतरा , पुर्तगालियों की ही देन रही जिन्हे उन्होंने विभिन्न देशो से प्राप्त किया था। पुर्तगीज आधिपत्य की स्थापना से ही व्यापार में नौ-सैनिक शक्ति की महत्ता प्रमाणित हुई।

भारत में डचों का आगमन

डच नीदरलेण्ड या हालेण्ड के निवासी थे। पुर्तगीजों के बाद डच ही भारत आए। 1595-96 ई० में कार्नेलियस के नेतृत्व में पहला डच अभियान दल पूर्वी जगत में पहुँचा। सुमात्रा पहुँचकर  राजा के साथ सन्धि करने में इस दल ने सफलता प्राप्त की। 1595 ई० और 1601 ई० बीच डचों ने पूर्वी जगत की ओर 15 सामुद्रिक यात्रायें की। 1602 ई० में विभिन्‍न डच कम्पनियों को मिलाकर “यूनाइटेड ईस्ट इण्डिया कम्पनी आफ नीदरलेण्ड” के नाम से एक विशाल व्यापारिक संस्थान की स्थापना को गई।

इस कम्पनी का मूल नाम VOC ( vereenigde oost indische compagnic) था। कम्पनी की देख-रेख के 17 व्यक्तियों का एक बोर्ड बनाया गया। यह बोर्ड डच सरकार के आदेशों के अनुसार ही कम्पनी का संचालन करता था। कम्पनी की स्थापना के समय इसकी कुल प्रारम्भिक पूंजी 65 लाख थी। कम्पनी को हालेण्ड सरकार द्वारा 21 वर्षों के लिए भारत और पूंजी जगत के साथ व्यापार करने और आक्रमण एवं विजय करने के सम्बन्ध में व्यापक अधिकार प्रदान किए गए। ओमप्रकाश जो डच व्यापार के विषय पर विशेषज्ञ माने जाते हें, के अनुसार प्रारंभिक चरण में डच मूल रूप से काली मिर्च तथा अन्य मसालों के व्यापार तक ही रुचि रखते थे। ये मसाले मूलत इण्डोनेशिया में मिलते थे इसलिए डच कम्पनी का वह प्रमुख केन्द्र बन गया था।

1605 ई० में डचों ने पुर्तगीजों से अम्बायना ले लिया तथा धीरे-धीरे मसाला द्वीप पुंज (इण्डोनेशिया) में उन्हीं को हराकर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया। उन्होंने जकार्ता जीतकर 1619 ई० में इसके खण्डहरों पर बैटेविया नामक नगर बसाया। लन्‍दन और दि हेग (हालेण्ड की राजधानी) में हुए सम्मेलनों (1611 ई० और 1613 से 1615 ई०) के फलस्वरूप डचों और अंग्रेजों के बीच 1619 ई० में एक मेत्रीपूर्ण सन्धि हों गई किन्तु बाद मे फिर शत्रुता प्रारम्भ हो गई। 1023 ई० में अम्बायना में 10 अंग्रेजों और 9 जापानियों का क्रूरतापूर्ण वध कर दिया गया।

इस अम्बायना नरसंहार के बाद डचों ने मलय द्वीपपुंज में ओर अंग्रेजों ने भारत में अपने को सीमित कर देना शुरू किया। डचों का भारत में व्यापारिक केन्ध सिमटने लगा ओर पूर्व एशिया में बैट में केन्द्रित होता गया।
डच नौसेना नायक वार्देर हेग सूरत एवं मालाबार में असफल होने के बाद 1605 में मसूलीपट्टम में प्रथम डच फेक्ट्री की स्थापना की।

दूसरी डच फेक्ट्री कों पेत्तोपाली (निजामपत्तम) में स्थापित किया गया। 1610 में डचों ने चन्द्रगिरि के राजा के साथ समझौता करके पुलीकट में एक अन्य फेक्ट्री की स्थापना
की ओर इसे अपना मुख्यालय बनाया। डचों ने यहाँ पर अपने स्वर्ण सिक्के पैगोड़ा ढाले। डचों ने 1616 ई० में सूरत में एवं 1641 ई में विमलीपट्टम में फेक्ट्रियों की स्थापना की ।


बंगाल में प्रथम डच फेक्ट्री की स्थापना पीपली में सन्‌ 1627 ई० में की गई। 1653 ई० में हुगली के निकट चिनसुरा में डचों ने अपनी कोठी स्थापित की। बंगाल में अंग्रेजों की तरह डचों को भी अपनी फेक्ट्री की किलेबन्दी करने की आज्ञा मिली थी। चिनसुरा के डच किले गुस्ताबुस पोर्ट के नाम से जाना जाता था। 1658 ई० में डचों ने कासिम बाजार, बालासोर, ओर नेगापट्टम में अपनी फेक्ट्रियाँ स्थापित कीं। 1660 ई० में गोलकुण्डा में डच फेक्ट्री की स्थापना हुई। 1663 ई० में कोचीन में भी फेक्ट्री की स्थापना हुई। कोचीन के मुट्टा शासन से डच कम्पनी ने विशेष व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त कीं जिनमें सबसे महत्वपूर्ण थी–पुड़ाकड़ ओर क्रांगनूर के बीच के क्षेत्र में काली मिर्च का एकाधिकार। औरंगजेब ने 1664 ई० में डर्चों को 31/2% वार्षिक चुंगी पर बंगाल, बिहार और उड़ीसा में व्यापार करने का अधिकार दिया। 1690 ई० में पुलीकट के स्थान पर नेगापट्टम को डच गवर्नर का मुख्यालय बनाया गया। मालाबार तटवर्ती प्रदेशों में कोचीन, किन्नौर और वेनगुर्ला डचों के व्यापारिक केन्द्र थे। डच फैक्ट्रियों के प्रमुखों जिन्हें फेक्टर कहा जाता था। को व्यापारियों के रूप में वर्गीकृत किया गया।

डचों ने मसालों के स्थान पर भारतीय कपड़ों के निर्यात को अधिक महत्व दिया। ये कपड़े कोरोमण्डल तट, बंगाल ओर गुजरात से निर्यात किए जाते थे। माल के स्तर को बनाए रखने तथा निम्न कोटि के माल की सप्लाई को रोकने के लिए 1650 के दशक में डच. कम्पनी ने कासिम बाजार में स्वयं रेशम की चक्री का उद्योग स्थापित किया, जिसमें लगभग 3000 कारीगरों को वेतन पर रखागया। ओम प्रकाश के अनुसार यह प्रयास आधुनिक उत्पादन व्यवस्था के प्रारंभ की दृष्टि से उल्लेखनीय था।

डचों द्वारा निर्यात की जाने वाली अन्य वस्तुओं में उत्तर प्रदेश ओर मध्य भारत से नील, मध्य भारत से कच्चा रेशम, बिहार और बंगाल से शोरा एवं नमक, गंगाघाटी से अफीम ओर बंगाल का कच्चा रेशम था भारत से भारतीय वस्र को निर्यात की वस्तु बनाने का श्रेय डचों को जाता है 1759 ई० में अंग्रेजों बेडरा (बंगाल) के डच पराजित हुए। इस पराजय ने भारत से उनकी शक्ति समाप्त कर दी।

भारत में अंग्रेजो का आगमन

भारत में डेनिश कम्पनी का आगमन

अंग्रेजो के बाद भारत में डेनिश लोग भारत आये। तंजौर जिले के टाँकेबोर में 1620 ईस्वी में इन्होंने अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। बाद बंगाल के सीरमपुर में 1676 ईस्वी में इन्होने अपनी दूसरी फैक्ट्री स्थापित की। 1745 ईस्वी में इन्होंने अपनी सभी फैक्ट्रियां बिट्रिश कम्पनी को बेंच दी और वे भारत चले गए।

भारत में फ्रांसीसियों का आगमन

फ्रांस के सम्राट लुई 14 के समय और उनके मंत्री कोलबर्ट के प्रयासों के परिणाम स्वरुप 1664 ईस्वी में एक फ्रांसीसी व्यापारिक कम्पनी ‘कम्पनी द इण्ड ओरिएण्टल ‘ की स्थापना हुई। फ्रांसीसी कंपनी निर्माण सरकार द्वारा हुआ और इसका सारा खर्च सरकार ही वहन करती थी। फ्रांसीसी सबसे पहले मेडगवास्कर द्वीप पहुंचे थे परन्तु वहां उपनिवेश स्थापित करने में असफल रहे। फ़्रांस दूसरा दल 1667 में चला। इसका नायक फ्रांकोकेरा था। इसके साथ इम्फ़ान का निवासी मारकारा भी था। भारत में फ्रांसीसीयों की पहली कोठी सूरत में स्थापित की गई। मरकाना गोलकुंडा के सुल्तान से अधिकार पत्र प्राप्त कर 1669 में मसूलीपत्तनम में दूसरी फैक्ट्री स्थापित की 1672 में प्रांसीसियों ने मद्रास के निकट सानथोमि को ले लिया लेकिन अगले साल उनका जल सेनापति ” दी ला हे ” गोलकुंडा के सुल्तान और डचो की सम्मिलित सेना द्वारा पराजित हुआ तथा डचों को सानथोमी देने को बाध्य हुआ।

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